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Thursday, June 30

देश आजादी के नाम- श्रीमती रश्मि बुनकर (काव्य धारा)

 काव्य धारा


देश आजादी के नाम
               
  रो रहा है देश,
 और तुम आजादी की बात करते हो।
              लोकतंत्र के नाम पर,
  इंसानियत का कत्लेआम करते हो।
              राजनीति की नुमाइश,      
  तुम बाजारों में करते हो।    
              आजादी के नाम पर,  
  तुम सब का शोषण करते हो।     
             नहीं चाहिए ऐसी आजादी,    
  गर समानता का अधिकार न मिले।  
             नहीं चाहिए ऐसी आजादी,
  गर मानवता का साथ न मिले।
             हिंदू मुस्लिम करते-करते,
   तुमने खोया अपना भाई-चारा है।
                 झूठे नारे खूब लगाते,
  अपना भारत प्यारा है।
       लोकतंत्र की आड़ में देश को ही लूट रहे,
  भ्रष्टाचारी राजनेता देश का खून चूस रहे।
             फुटपाथ पर पड़ा देश,
   आज खुद पर रो रहा।
   बोलो भारतवासी इस देश का क्या हो रहा ।।

श्रीमती रश्मि बुनकर
पद-प्राथमिक शिक्षक
शाला-एकीकृत शा.शा.मा.वि.जालमपुर
+91 78283 20101

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Sunday, June 26

स्वयं हिंदी बोली -.सुलभा संजयसिंह राजपूत (काव्य धारा)

काव्य धारा


स्वयं हिंदी बोली।

संस्कृत की मैं बेटी कहलाती, अलंकार, रस, छंदों से शोभा पाती।

मेरे सब अपने, कोई गैर नहीं है,

किसी बोली, भाषा से बैर नहीं है।

अरबी, फारसी अंग्रेजी को बहन सा अपनाया,

प्रसन्न हो गई मैं,जब राजभाषा का गौरव पाया।

दरवाजे की ओट से चुपचाप निहारती,

और अपने ही घर में,मैं अपनों को पुकारती।

अंग्रेजी के बढ़ते चलन पर बेटी हिंदी रोती है,

सोचने को विवश ,क्या बेटी सचमुच पराई होती है?

भारत को हर क्षण मैंने प्रेम से जोड़ा है,

पर अपनों ने ही मेरे हृदय को तोड़ा है।

क्यो हिंदी दिवस पर ही याद कर पाते हो?

मैं तो घर की बेटी, हर उत्सव क्यो नही बुलाते हो?

फिर भी मुझे हर हिन्दुस्तानी से मुझे आस है,

मेरे अपनों में  पंत, निराला और कुमार विश्वास।

क‌ई लेखकों और कवियों की सदा से यहीं पहचान है,

और हिंदी है इसीलिए तो हिंदुस्तान है,

हिंदी है इसीलिए तो हिंदुस्तान है।


सुलभा संजयसिंह राजपूत 

सूरत 

गुजरात

+91 91736 80344

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Saturday, June 25

किसान देश के - गिरीश इन्द्र (काव्य धारा)

काव्य धारा


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किसान देश के

**********

हिन्दुस्तान किसान हैं ,   मानो   सबसे   मूल ।

पहचानो अन्तर्मनस , करो तनिक मत  भूल ।।

*

अन्न सदा उत्पन्न कर ,   भरता  सबका  पेट ।

काट जरूरत जगत की, भरता जग की टेट।।

*

नहीं नजर कोई करे ,   मालिक  हो सरकार ।

खाए जिसका अन्न जग , करे  उसी से  मार।।

*

अपने ही सरकार से  ,   मांगे  अपना  भाग ।

हुआ तंत्र सब अनसुना , मिले न , कोई राग ।।

*

अनशन करते ही रहे , दिया न , कोई ध्यान !

खून बहाया  सड़क पर, बस ! इतना सम्मान।।

*

यह किसान है देश का , देखो  ! खस्ताहाल ।

ध्यान न कोई दे रहा ,  किसको रहा  मलाल।?

*

अन्न नहीं , तो कुछ नहीं , जिसका  है आधार।

जगती का ढोता रहा ,  कृषक  सदा अधिभार ।।

*

नेताओं ! कहना सुनो ! तुम हो जिसके  लाल !

उस किसान का तुम नहीं, नीचा करना  भाल।।

*

अन्न - भूमि माता हुई , जीवन - जननी  मान।

नित सेवा करते  रहो , दे  मन  से    सम्मान । 


गिरीश इन्द्र

+91 88962 39704

c/o डा विजय प्रताप सिंह जी, 

श्री दुर्गा शक्ति पीठ, 

अजुबा,  

आजमगढ़, ऊ ०प्र०-२७६१२७

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Friday, June 24

मैं - हरिओम कुमार (काव्य धारा)

काव्य धारा


मैं

मैं द्रोणाचार्य नहीं हूँ,
जो कभी तो शिष्य-मोह में कटवा लूँ
किसी एकलव्य का अँगूठा
और कभी पुत्र-मोह में शस्त्र त्याग दूँ ,
कटवा लूँ अपना ही सिर,
पर न छोड़ पाऊँ अनीति का साथ
नीति के बहाने से,
जो कर देता है मजबूर 
किसी सत्यवादी को भी 
अर्धसत्य का सहारा लेने को।

और न ही मैं कर्ण हूँ
कि थोड़े से मान के लिए 
प्रतिज्ञाबद्ध होकर
अन्याय का साथ दूँ,
उसके लिए मर मिटूँ, ...नहीं!

मैं तो कहीं न कहीं खुद को
जुड़ा हुआ पाता हूँ
एकलव्य के कटे हुए अंगूठे से
क्योंकि मैं निराश्रय का आश्रय हूँ,
गम के होठों पर
खुशियों की मुस्कान की चाहत हूँ 
और
मरणासन्न का जीवन बचा पाने का
हर सम्भव प्रयत्न हूँ;
जी हाँ मैं मुकम्मल रूप में कुछ नहीं,
बस मुकम्मल की एक कोशिश हूँ !


हरिओम कुमार
अतिथि प्राध्यापक,
ललित नारायण जनता महाविद्यालय,
झंझारपुर, मधुबनी(बिहार)
+91 80848 08349
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मस्ती बचपन वाली - आकांक्षा रूपा चचरा (काव्य धारा)

काव्य धारा


शीर्षक-  मस्ती  बचपन वाली

सहजता थी, सादगी थी,बंदगी थी।

ये सोशल मीडिया और इंटरनेट नहीं था तो ज़िन्दगी थी

कच्चे  घरों मे सच्चे  दिल थे 

बड़ी मौज मे कटती थी   जिंदगी 

नानी के घर मे मस्ती का आलम

भजन  संध्या  करते  हुए सीखते अच्छे संस्कार  हम

वो बिजली गुल होते ही हल्ला मचाते

छत पर बिस्तर लगाते फिर मस्ती  मे मस्त होकर 

अंताक्षरी गाते.....

माँ  को खुश  देखते हम जब वो 

नानी से ढेरों बातें  करती उनकी गोद मे सिर रख

लेती।

  माँ  अपनी आँखों  मे बचपन की यादें समेट 

लेती ।

पडोस  वाले  भी माँ  को मिलने आते

रिश्तो  की मिठास  चारो और फैल जाती जब 

माँ  पडोसी  को भी चाचा कह कर परिचय करवाती।

चवन्नी  मिलती, नाना जी के पैर दबाने से।

खूब मजे से आइसक्रीम  खाते मामा जी के लाने से

मौसी देती मक्खन  वाले परांठे , दही,पकौडे

खाते।

हम 

जिंदगी मे खेल कूद का मजा बड़ा ही  न्यारा  था।

कबूतरों को बाजरा  खाते देख झूमते गाते थे।

तोते के संग गाते गाते देख नानू  रटू 

तोता कह के चिड़ाते थे।

नानी-दादी हमको कहानी सुना कर सुलाती थी।

पिताजी  की सीख हमारा आत्म  विश्वास  बढ़ाती थी।

काश ! आज की पीढ़ी  जिंदगी  का वो स्वाद चख पाती।




आकांक्षा रूपा चचरा 

8984648644

कटक ओडिशा

........,.........     

पद- शिक्षिका, लेखिका,वरिष्ठ  कवियत्री, समाज सेविका

सम्प्रति -  लखनऊ  पत्रिका--की मुख्य  सलाहकार, ब्यूरो चीफ 

कार्यरत्त--- गुरू नानक पब्लिक स्कूल कटक ओडिशा मे शिक्षिका  


प्रकाशित कृति - आकांक्षा  के मुक्त, डा॰ पूर्ण नन्दा ओझा की जीवनी ,अनवरत साझा संकलन,अरुणोदय त्रैमासिक  पत्रिका मे साझा संकलन।

सम्मान - कनाडा से साहित्य रथी  सम्मान, काव्य श्री सम्मान,  नारी अस्मिता सम्मान ( महाराष्ट्र)

लखनऊ- काव्य रथी सम्मान 

देवरिया उत्तरप्रदेश-साहित्य शक्ति संस्थान

संयोजक

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Sunday, June 19

हिंदी का ऊँचा महत्व -विश्वनाथ कोर्वेता (काव्य धारा)

काव्य धारा


हिंदी का ऊँचा महत्व

हिंदी हमारी शान है
हिंदुस्तान की जान है
जिसके कारण दुनिय में
भारत की पहचानहै।

     बालकों की तोतली बोली..
      "लेल गाली, लेल गाली
        बली प्याली, लेल गाली"

         शहद से भी मीठी मीठी,
          नन्हे बच्चों की हिंदी बोली
          चाहे कोई पर्व आये..
           या हो आये होली,
          गीत खुशी के गाते सुनकर
           मीठी  लगे बोली। 

 देवनागरी लिपि इसकी
  सभी भाषाओं की जननी है,
  महत्व कितना ऊँचा इसका 
  हर भाषा  इसकी  रुणी है। 

         बुंदेले बोलों से हिंदी
         कविताओं की शान है,
          रचना करनेवालों पर
          मेरा भी अभिमान है ।
हिंदी हमारी शान है
हिंदुस्तान की जान है
जिसके कारण दुनिया में
भारत की पहचान है ।

विश्वनाथ कोर्वेता 
Rtd. Hindi Pandit.
+91 94415 90015
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गिरीश - सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल” (काव्य धारा)

काव्य धारा


काव्य  : शैलाधिराज 
शीर्षक : गिरीश

मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्
साक्षात, तत्वज्ञ, गरिमा महान
पुंसकता के समुच्चित प्रकाश
मेरी मातृका के तुषार शेखर
मेरे हिन्द के अलौकिक उत्तमांग
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्। 

युग-युगान्तर से दुर्जेय निरोध उन्मुक्त
युग-युगान्तर उद्धताभ्युदित सदा श्रेष्ठ
अनन्त गगन में खींच रहा
जुगों से किस विभूति का विस्तार
कैसी अक्षुण्य यह चिर-प्रणिधान
हे साधुवर! आपका कैसा यह अदित प्रहाण
तू महाविल में शोध रहा 
किस गूढ़ प्रश्न का निदान
द्विविधा का कैसा प्रचंड पाश
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्। 

ओ शान्त योग साधना में लीन व्रती
क्षण भर को भी तो कर खोल नयन
हे अग्निशिखाओं से भी दग्ध, आकुल
छटपटा रहा है चरण पर विश्वधाम
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।

तेरे आँचल से शीतल भयी देवभूमि महान
सिंधु गंगा ब्रम्हपुत्र ये तीनों नाम प्रमत्त
जिस महालय की ओर बही
तेरी पिघली हुई अनुकंपा उदात्त
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।

जिसके गोपुर पर खड़ा क्रांत
तूने की परिधिकांत आह्वान
मर्यादा-खंडित करना पीछे
इसके पहले कर मेरा शीश कटान।
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।

इस तीर्थ-स्थल पर हैं अभी भी तपस्वी
आज आन पड़ी विपदा भीषड़
विकल तेरे संतान तड़प रहे
काट रहे चारों तरफ से विचित्र उरंगड़।
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।

कितने रत्न लुट गये 
लुप्त कितने ऐश्वर्य हुए तमाम
तू योग में अनुरक्त ही रहा
इधर निर्जन हुआ मंजुल विश्वधाम। 
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।


✍🏿 सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”
      सिंगरौली (मध्यप्रदेश)
9471358203



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Saturday, June 18

सार्वभौमिक सत्य - पुरुषोत्तम लाल सोनी (काव्य धारा)

काव्य धारा

सार्वभौमिक सत्य 

भावना का मै सुखद अहसास पाना चहता हूं।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूं।।

पृकृति का हर रुप अवलोकन करुं।   
हर श्वांस अरु विश्वास मे  चिन्तन करुं ।
बिन कसौटी के अटल विश्वास पाना चाहता हूं। 
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूं।।

है नियति मे ही नियत, होगा वही जो वो करेगा। 
किन्तु गीता मे लिखा सतकर्म ही मारग बनेगा।
फिर भी उसकी दी लकीरों को मिटाना चाहता हूँ।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूँ।

पंचतत्वों मे समाहित ज्ञान का भंडार सारा, 
क्यों तलाशा जा रहा मंजर, असत जीवन हमारा ।
फिर भी मन, नाहक कुतर्कों मे, फँसाना चाहता हूँ। 
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूँ ।

ना रुके हैं कृष्ण, ना ही,भीष्म, न अर्जुन रुके। 
ना रुकी गति चक्र की, पर मृत्यु के आगे झुके।
फिर भी ममता मोह माया मे, उलझता जा रहा हूँ। 
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूँ।

कर्म से मत विमुख हो, चिन्तन करो, इस नियति का।
कर्मसाध्या हो बनो सतमार्ग  खोजी जगत का।
भूलकर अस्तित्व मै, किस ओर जाना चाहता हूं।
जिन्दगी के अनछुए आकश पाना चाहता हूँ।

आज पुरुषोत्तम पुनः इस सत्य पर मंथन करो।
जीव जब नश्वर यहाँ तो क्यों करुण क्रंदन करो।
आत्मा और मृत्यु ही, इस जगत का कटु सत्य है।
मै चराचर जीव को, फिर सच बताना चाहता हूं।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूं।।
जिन्दगी के मै सुखद अहसास पाना चाहता हूँ।

सत्य है, रिश्ते यहाँ के स्वार्थ मे ही हैं समाये, 
जो गये वो आज तक उस रुप मे वापस न आये।
सार्वभौमिक सत्य को मै,  क्यों बदलना चाहता हूं।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूँ।

पुरुषोत्तम सोनी"मतंग"
लखनऊ
9335921106

सम्प्रति.. 
से.नि. अधीक्षक, 
पुलिस सतर्कता विभाग उ.प्र. एवं वर्तमान मे सम्पादक, अरुणोदय हिन्दी त्रैमासिक, एवं समीक्षक, पूर्व मे प्रकाशित दस कवियों का साझा संकलन," मधूलिका काव्यांजलि,

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Wednesday, June 8

फेरीवाला- अनिल कुमार ( काव्य धारा )

काव्य धारा


फेरीवाला

कड़ी धूप है
बाहर लू का कहर
धरती तपती है
सुबह, शाम, दुपहर
सब बंद है
घर की दीवारों के अंदर
लेकिन, 
एक सूर चिल्लाता है
बार-बार, कई बार
जोर-जोर से
सूनी गलियों में 
एक कर्कश स्वर
पुकार लगाता, दोहराता है
तपते अम्बर-धरा
लू-तपन को सहता
अक्सर
गलियों-सड़कों से 
फेरीवाला
क्रय-विक्रय का
कुछ सामान लिये
रोज गुजरता, आता-जाता है।


अनिल कुमार
वरिष्ठ अध्यापक हिन्दी
    ग्राम देई, जिला बूंदी, राजस्थान

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Tuesday, June 7

कली के याद में- सनल कक्काड (काव्य धारा)

काव्य धारा


कली के याद में

बैठा था मैं माला गूँदने केलिए
अपने भगवान को पहनाने को
सुंदर-रंग-बिरंगी कलियों से
 मैं अच्छी माला गूँद रहा था।

तब एक सुंदर कली मुझे देखकर मुस्कुराता था
मैं ने उसे उठा लिया, कितना कोमल था वह ,
मैं ने देखा था उसमें , एक अत्याचारी कीड को,
कली के कोमलता को वह काट काट खा रहा था।

मन में याद आई दादी की बातें
अच्छे फूलों से ही भगवान को माला दो
मैं पीडा के साथ उसे छोड दिया
तब वह पूछता था मुझसे मेरी गलती बता दो।

मेरे सौंदर्य को मोह करके एक क्रूर ने छीन लिया
उस में गलती मेरी कोई भी नहीं थी.
सब कहती थी ईश्वर हमारे रक्षा करेंगें
लेकिन अब ईश्वर को भी न चाहे तो मुझे कौन बचाएगा।

सनल कक्काड
कक्काड मना
ऊरकम कीषु मुरी
मलप्पुरम
केरला 676519
फोन नम्बर 85908 16004

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Monday, June 6

भारत माता - सावित्री जामि "चेतना" (काव्य धारा)

काव्य धारा


भारत माता

भारत माता प्रिय जननी।
विश्व विजेता शुभकरिणी।
धरणी उज्जवल विभवशालिनी।
पुण्य भूमि विश्वशालिनी।।

प्रबध्द शुद्ध सुधामयी।
पृथ्वी रक्षा क्षमामयी।
लोक कल्याण वात्सल्यमयी।
स्नेह-प्रेम शांतिकारिणी।।

संसार की  तू क्षेमामयी।
अपराध की तू क्षमामयी।
करुण स्वर की तू दयामयी।
दिव्य शक्ति धारण ज्योर्तिमयी।।

प्रकृति की सदैव भयनिवारिणी।
जगत की सदा शरणदायिनी।
जग की नित्य मंगलकारिणी।
ममता समता जीवनधारिणी।।
सावित्री जामि "चेतना"
साहित्यकार
तेलंगाना, भारत
7659074993
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Sunday, June 5

धरा का श्रृंगार - विजयलक्ष्मी (काव्य धारा)

काव्य धारा


विधा:पर्यावरण संरक्षण
कविता: धरा का श्रृंगार

आकाश हमारा पिता है
धरती हमारी माता है
आकाश से वर्षा,धूप इंसान पाता है
धरती मां से अन्न जल पाता है
दोनो से इंसान जीवन पाता है
वृक्ष मां का श्रृंगार कहलाते हैं
जो सब के जीवन दाता है
फिर क्यों निज स्वार्थ में लिप्त
मां के सीने पर कुल्हाड़ी चलाता है
आकाश से बम बरसा कर
पर्यावरण को दूषित कर
जीत की खुशी में मन को भ्रमाता है
आक्सीजन को खत्म कर
ओजोन परत में छेद बनाता है
इतना सब करने के बाद
हार में जीत का जश्न मनाता है
दावानल की अग्न में
मां का सीना जलाता है
फिर ' विजयलक्ष्मी' सोचती है
पर्यावरण दिवस मना
क्यों इंसान ढोंग रचाता है
वाही वाही के लिए इंसान
पौधे को हाथ लगा फोटो खिचवाता है
हर साल कितने पौधे लगाए जाते हैं
फिर भी धरती मां का श्रृंगार 
अधूरा नजर आता है
इंसान कैसा पर्यावरण दिवस मनाता है
इस सवाल का जवाब ढूंढने में
अचानक हाथ लिखने से रुक जाता है,
जवाब इंसानियत में गुम हो जाता है


स्वरचित विजयलक्ष्मी शिक्षिका 
मुख्य शिक्षिका छारा-2
बहादुरगढ़ झज्जर हरियाणा
लेखनी: सकारात्मक सोच
मोबाइल नं-9050209977
 
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खोज - प्रतिमा राजपूत (काव्य धारा)

काव्य धारा


शीर्षक - खोज         
विस्तार वो मिलेगा,निज को  समेट लो तुम,आकार में ढलोगे टूट जाओ तो  सही।
हो जाएंगे यूं हल ही, कितने ही प्रश्न सारे, बस प्रश्न तुम स्वयं से पूछ पाओ तो सही।
मिल जाएं कितने साथी तुमको वो  भूले बिसरे, बस एकाकी रहना सीख जाओ तो सही।
मिल जायेगी खुशी वह जो भीड़ में है खोयी, बस दर्द  अश्क का वो जान पाओ तो सही।
जाओगे संवर तुम बस, चोट खाते खाते, बस कभी अस्तित्व से मिट जाओ तो सही।
पा जाओगे वो जीवन तुम जहर पीते पीते, छोड़ कर के  मैं-पन  मर जाओ तो सही।
उठना गगन के जैसा,आ जाए गिरते-गिरते,वसुंधरा की रज से मिल जाओ तो सही।
 मिल जाए प्यार इतना नफरत की उस नजर से,बस घृणा लेकर प्रीत को दे  पाओ तो सही।

प्रतिमा राजपूत 
(स०अ०)पू०मा०वि०लौहारी वि० खंड चरखारी महोबा (उत्तर प्रदेश)



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पनाह मांगने बुढ़ापा है निकला - ओमकार सरडीवाल (काव्य धारा)

काव्य धारा


पनाह मांगने बुढ़ापा है निकला…

पनाह मांगने बुढ़ापा है निकला
गुजर गया जीवन रिश्तो को संजोने में
मुड़ के देखा आज
अपनी ही बनाई पगडंडी में
तन्हा खड़े थे हम साजिशों के मेले में...

पनाह मांगने बुढ़ापा है निकला
कदर न जानी अपनी,समय बीतता गया
ख्वाहिशों के अवसरों पर
खुद को दर्द भराता गया
जीवन के सपनों पर...

पनहा मांगने बुढ़ापा है निकला
आया था अकेला
चल रहा हूं अकेला
जीवन के पद पर
सबको कुछ ना कुछ देता चला...

पनहा मांगने बुढ़ापा है चला
जीवन को सजाया था खुशियों से
आस थी बिताएंगे शान से
नतमस्तक हो गए नियति से
फुआर लगाए हम किसिसे...

पनहा मांगने बुढ़ापा है निकला
अब ना बचा जीवन शेष
फिर भी कुछ करने की आस है विशेष
बाकी बचा वह भी कर देंगे निवेश
बचे रहेंगे संस्कारों के अवशेष
पनाह मांगने बुढ़ापा है निकला...

ओमकार सरडीवाल 
(अध्यापक)
जन्म:-1979
हैदराबाद।
8341738804

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ज्ञानज्योति: समय विकट है - दीपिका गर्ग (काव्य धारा)

काव्य धारा

ज्ञानज्योति: समय विकट है

समय विकट है भीषण रण की ।
कर लो तुम तैयारी 
पहले अंतर्मन को जीतो। 
फिर बाहर की बारी । 

स्वार्थ और क्षणिक सुख में, 
हो गए हैं सब अंधे। 
ईमान बेच दिया क्या सबने, 
करते गोरखधंधे । 
अभी नहीं संभले तो फिर, 
आएगा संकट भारी । 

राजधर्म खंडित हो रहा, 
सो गया पुरुषार्थ। 
शिवि हरिश्चंद्र  के वंशज, 
भूल गए परमार्थ। 
अभी न आँखें खोली तो फिर, 
बन जाओगे गांधारी।

आधुनिकता की दौड़ में क्यों,
संस्कारों को भूल गये। 
राम कृष्ण के आदर्शो से, 
गीता से क्यों दूर गये। 
अभी नहीं लौटे तो फिर ,
लज्जा जाएगी सारी। 

 दीपिका गर्ग 
(कवयित्री, लेखिका) 
स०अ०
कं० क०पू०मा०वि० महोबकंठ पनवाड़ीे जिला-महोबा उत्तर प्रदेश


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Saturday, June 4

वंदेमातरम् - प्रसादराव जामि (काव्य धारा)

काव्य धारा


वंदेमातरम्                          

वंदेमातरम् वंदेमातरम् वंदेमातरम्
वंदेमातरम् वंदेमातरम् वंदेमातरम्

पूरब में बंगालखाड़ी है,
पश्चिम में अरेबिया समुंदर है,
उत्तर में हिम-हिमालय है,
दक्षिण में हिंदमहासागर है।।वंदेमातरम्।।


सोने जैसा पंजाब है,
चांदी जैसा गुजरात है,
मोती जैसा मराठा है,
हीरा जैसा द्रविड़ है।।वंदेमातरम्।। 

गोमेद जैसा उत्कल है,
वैदूर्य जैसा बंगा है,
माणिक जैसा विंध्य है,
नीलम जैसा हिमालय है।।वंदेमातरम्।।

पन्ना जैसा थार है,
मुख्य राज जैसा असाम है,
तामड़ा जैसा बिहार है,
मूंगा जैसा गंगा है।। वंदेमातरम्।।


प्रसादराव जामि
साहित्यकार एवं संपादक
तेलंगाना, भारत

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एक रिश्ता - श्रीमती सुशीला देवी (काव्य धारा)

काव्य धारा


एक रिश्ता

ह्रदय और आँखों का होता एक रिश्ता गहरा।
दर्द-ए-दिल हो तो आँखों में अश्क ठहरा।।

जब इसको ठेस लगे तो आँखें रोती।
दिल बैचैन हो तो ये भी चैन खोती।।

इनके चर्चे तो है बड़े ही मशहूर।
एक पल भी न रह पाए दूर।।

दिल की दीवानगी आँखें करती बयाँ।
दिल की दास्तां न कह पाए जुबाँ।।

तुम्हारी दोस्ती पर फना होने को जी चाहता।
ये दिल इन आँखों पर ही इतराता।।

वक्त गवाह है इस एक बात का भी।
दिल संग आँखों के गम- ए-रात का भी।।

दिल के संग रात-भर जागे और सोये भी।
इसकी दोस्ती खातिर संग हँसे भी रोये भी।।


स्वरचित
श्रीमती सुशीला देवी
(शिक्षिका एवं साहित्यकार)
करनाल ,हरियाणा।
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