(हिंदी हूँ मैं...)
अध्यापन कार्य
हेमंत को बचपन से अध्यापन में बड़ी रूचि थी। यह उस समय की बात है जब हेमंत पांचवीं कक्षा में पढ़ रहा था। शाम के समय हेमंत के पिताजी के पास कई लोग आकर बातचीत करते हुए बैठते थे। हेमंत को अपना गृहकार्य लगन के साथ करते हुए देख वे लोग कहते थे कि पंडित जी हमें भी कुछ सिखाइए , हम भी पढ़ना चाहते हैं ।
वे लोग पिताजी को जितना आदर करते थे , उतने ही आदर के साथ उसे पंडित जी के नाम से पुकारना उसे बहुत पसंद आता था । इस तरह उन्हें पंडित जी कहते हुए देख गर्व महसूस करता था । शायद इसीलिए वह बचपन में ही अपने मन में ठान लिया कि मैं एक अच्छा अध्यापक बनूँगा ।
हेमंत उन लोगों को अपना - अपना नाम और छोटे - छोटे शब्द लिखना सिखाया था । कभी - कभी अपनी माँ के पास जाकर गर्व के साथ कहता था कि देखो माँ मैंने चाचा जी को नाम लिखना सिखाया । माँ कहती थी - बेटा अध्यापन तो सर्वोत्तम कार्य होता है । तुम एक - न - एक दिन बहुत अच्छे अध्यापक बनोगे ।
हेमंत ने प्रथम श्रेणी में स्नातक की पूर्ति की । इतने में पिताजी बीमार हो गये थे । बड़े भाई ने कहा था कि स्नातक की पढ़ाई के बाद घर में ही रहकर घरेलू उद्योग संभाल लेना । लेकिन हेमंत के मन में अध्यापक बनने की दृढ़ इच्छा थी । घर में काम करते हुए वह अपने गाँव की पाठशाला में अध्यापन कार्य शुरू किया । एक हजार रुपये वेतन मिलता था । घर में काम करते हुए ही अध्यापन का कार्य करता था । गरीब विद्यार्थियों की सहायता करने की दृढ़ इच्छा उसके मन में थी ।
भगवान की कृपा से उसे सरकारी नौकरी मिली । उसने इसे जरूरतमंदों की सहायता करने का भगवान के द्वारा मिला हुआ एक मौका समझा । पाठशाला में एक अच्छे अध्यापक के रूप में नाम कमाया ।
पाठशाला में कई विद्यार्थी गरीब घराने से थे । उनके माता - पिता भी पढ़े-लिखे नहीं थे । कई छात्रों को पढ़ाई में इच्छा नहीं थी । उनमें से कई लोग पढ़ाई छोड़ कर घर वापस चले जाना चाहते थे । हेमंत ने उन्हें पढ़ाई के महत्व के बारे में समझाया । पढ़ाई में उन्नति पाने पर उपहार देकर प्रोत्साहित किया । कुछ दिनों के बाद छात्रों में बदलाव आने लगा । छात्र अध्यापक को चाहने लगे । पढ़ाई में भी रुचि दिखाने लगे । अच्छे अंकों के साथ वे अपनी पढ़ाई भी पूरी की ।
कई साल बीत गये । हेमंत जी अब सेवानिवृत्त हुए थे । एक दिन हेमंत एक रेलवे स्टेशन में बैठकर रेल की प्रतीक्षा कर रहे थे । इतने में एक आदमी आकर उनके सामने खड़ा हुआ था । कह रहा था कि सर जी क्या आपने मुझे पहचाना ? हेमंत उसे ध्यान से देखते हुए उसे पहचानने की कोशिश कर रहा था । हेमंत के पैर छूते हुए उस आदमी ने कहा मैं आपके छात्रों में से एक हूँ । पाठशाला में पढ़ते समय पढ़ाई में मेरी इच्छा बिलकुल नहीं थी । कई बार मैंने पाठशाला छोड़कर घर वापस चले जाने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी । लेकिन आपने मुझे समझा कर मेरी पढ़ाई पूरी करने में सहायता की । आप के कारण ही मैंने आज एक अच्छी नौकरी पायी और अपने माता - पिता तथा अपने बच्चों को सुखी जीवन दे पा रहा हूँ ।
हेमंत ने उस आदमी को अपने हाथों से उठाया और कहने लगा कि - तुम्हें देखकर मुझे बेहद खुशी हो रही है । एक अध्यापक को इससे ज्यादा और क्या चाहिए ? हेमंत उसके सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दे रहे थे और उनकी आँखों से खुशी के आँसू बह रहे थे ।
नीति :
अध्यापक भविष्य का निर्माता होता है ।
अध्यापन कार्य तो सर्वोत्तम कार्य होता है ।
अध्यापक अपनी उन्नति से ज्यादा अपने छात्रों की उन्नति देखकर ही अधिक खुश होता है ।
--- अवुसुला श्रीनिवासा चारी ‘ शिक्षा रत्न ’
तुनिकि गाँव , कौड़ीपल्ली मण्डल , मेदक जिला , तेलंगाना राज्य - 502316.
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