काव्य धारा

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किसान देश के
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हिन्दुस्तान किसान हैं , मानो सबसे मूल ।
पहचानो अन्तर्मनस , करो तनिक मत भूल ।।
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अन्न सदा उत्पन्न कर , भरता सबका पेट ।
काट जरूरत जगत की, भरता जग की टेट।।
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नहीं नजर कोई करे , मालिक हो सरकार ।
खाए जिसका अन्न जग , करे उसी से मार।।
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अपने ही सरकार से , मांगे अपना भाग ।
हुआ तंत्र सब अनसुना , मिले न , कोई राग ।।
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अनशन करते ही रहे , दिया न , कोई ध्यान !
खून बहाया सड़क पर, बस ! इतना सम्मान।।
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यह किसान है देश का , देखो ! खस्ताहाल ।
ध्यान न कोई दे रहा , किसको रहा मलाल।?
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अन्न नहीं , तो कुछ नहीं , जिसका है आधार।
जगती का ढोता रहा , कृषक सदा अधिभार ।।
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नेताओं ! कहना सुनो ! तुम हो जिसके लाल !
उस किसान का तुम नहीं, नीचा करना भाल।।
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अन्न - भूमि माता हुई , जीवन - जननी मान।
नित सेवा करते रहो , दे मन से सम्मान ।
गिरीश इन्द्र
+91 88962 39704
c/o डा विजय प्रताप सिंह जी,
श्री दुर्गा शक्ति पीठ,
अजुबा,
आजमगढ़, ऊ ०प्र०-२७६१२७