काव्य धारा

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विस्तार वो मिलेगा,निज को समेट लो तुम,आकार में ढलोगे टूट जाओ तो सही।
हो जाएंगे यूं हल ही, कितने ही प्रश्न सारे, बस प्रश्न तुम स्वयं से पूछ पाओ तो सही।
मिल जाएं कितने साथी तुमको वो भूले बिसरे, बस एकाकी रहना सीख जाओ तो सही।
मिल जायेगी खुशी वह जो भीड़ में है खोयी, बस दर्द अश्क का वो जान पाओ तो सही।
जाओगे संवर तुम बस, चोट खाते खाते, बस कभी अस्तित्व से मिट जाओ तो सही।
पा जाओगे वो जीवन तुम जहर पीते पीते, छोड़ कर के मैं-पन मर जाओ तो सही।
उठना गगन के जैसा,आ जाए गिरते-गिरते,वसुंधरा की रज से मिल जाओ तो सही।
मिल जाए प्यार इतना नफरत की उस नजर से,बस घृणा लेकर प्रीत को दे पाओ तो सही।
प्रतिमा राजपूत
(स०अ०)पू०मा०वि०लौहारी वि० खंड चरखारी महोबा (उत्तर प्रदेश)