काव्य धारा

ज्ञानज्योति: समय विकट है
समय विकट है भीषण रण की ।
कर लो तुम तैयारी
पहले अंतर्मन को जीतो।
फिर बाहर की बारी ।
स्वार्थ और क्षणिक सुख में,
हो गए हैं सब अंधे।
ईमान बेच दिया क्या सबने,
करते गोरखधंधे ।
अभी नहीं संभले तो फिर,
आएगा संकट भारी ।
राजधर्म खंडित हो रहा,
सो गया पुरुषार्थ।
शिवि हरिश्चंद्र के वंशज,
भूल गए परमार्थ।
अभी न आँखें खोली तो फिर,
बन जाओगे गांधारी।
आधुनिकता की दौड़ में क्यों,
संस्कारों को भूल गये।
राम कृष्ण के आदर्शो से,
गीता से क्यों दूर गये।
अभी नहीं लौटे तो फिर ,
लज्जा जाएगी सारी।
दीपिका गर्ग
(कवयित्री, लेखिका)
स०अ०
कं० क०पू०मा०वि० महोबकंठ पनवाड़ीे जिला-महोबा उत्तर प्रदेश