काव्य धारा

सार्वभौमिक सत्य
भावना का मै सुखद अहसास पाना चहता हूं।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूं।।
पृकृति का हर रुप अवलोकन करुं।
हर श्वांस अरु विश्वास मे चिन्तन करुं ।
बिन कसौटी के अटल विश्वास पाना चाहता हूं।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूं।।
है नियति मे ही नियत, होगा वही जो वो करेगा।
किन्तु गीता मे लिखा सतकर्म ही मारग बनेगा।
फिर भी उसकी दी लकीरों को मिटाना चाहता हूँ।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूँ।
पंचतत्वों मे समाहित ज्ञान का भंडार सारा,
क्यों तलाशा जा रहा मंजर, असत जीवन हमारा ।
फिर भी मन, नाहक कुतर्कों मे, फँसाना चाहता हूँ।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूँ ।
ना रुके हैं कृष्ण, ना ही,भीष्म, न अर्जुन रुके।
ना रुकी गति चक्र की, पर मृत्यु के आगे झुके।
फिर भी ममता मोह माया मे, उलझता जा रहा हूँ।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूँ।
कर्म से मत विमुख हो, चिन्तन करो, इस नियति का।
कर्मसाध्या हो बनो सतमार्ग खोजी जगत का।
भूलकर अस्तित्व मै, किस ओर जाना चाहता हूं।
जिन्दगी के अनछुए आकश पाना चाहता हूँ।
आज पुरुषोत्तम पुनः इस सत्य पर मंथन करो।
जीव जब नश्वर यहाँ तो क्यों करुण क्रंदन करो।
आत्मा और मृत्यु ही, इस जगत का कटु सत्य है।
मै चराचर जीव को, फिर सच बताना चाहता हूं।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूं।।
जिन्दगी के मै सुखद अहसास पाना चाहता हूँ।
सत्य है, रिश्ते यहाँ के स्वार्थ मे ही हैं समाये,
जो गये वो आज तक उस रुप मे वापस न आये।
सार्वभौमिक सत्य को मै, क्यों बदलना चाहता हूं।
जिन्दगी के अनछुए आकाश पाना चाहता हूँ।
पुरुषोत्तम सोनी"मतंग"
लखनऊ
9335921106
सम्प्रति..
से.नि. अधीक्षक,
पुलिस सतर्कता विभाग उ.प्र. एवं वर्तमान मे सम्पादक, अरुणोदय हिन्दी त्रैमासिक, एवं समीक्षक, पूर्व मे प्रकाशित दस कवियों का साझा संकलन," मधूलिका काव्यांजलि,
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