(मैं कविता...)

मैं कौन हूं
मैं कौन हूं ?
मेरा अस्तित्व क्या है?
आज तक मैं नसमझ सकीं ।
न कोई मुझे समझ सका ।
आखिर मैं कौन हूं
जी तो रही हूं मैं दूसरों के सहारे ।
किसी का सहारा नहीं बन पाईं।
जिए तो कैसे जिए ।
मैं आज तक समझ नहीं सकी
मेरा अपराध क्या है ?
सहारा तो मिलता है सभी का
क्या करें जिंदगी में
खुशहाल की बात दूर
साथी और सगे भी
नफरत की नजर से देखते हैं ।
समझ में नहीं आता
जिए या मरें
मरते दम तक तो यह गुत्थी सूलझ जानी है ।
क्या ?तकदीर लेकर आएं अपने भी पराए हो गए।
गम के आंसू आसमान में बादल की तरह तैरने लगे।
न दिन है।
न रात हैं ।
बरसना तो इनका काम बन गया।
समय बीतते ही यह
बरसाती धूप की तरह लगने लगे जीवन में ।
सोचते कुछ और हकीकत कुछ और ही होती है।ं
प्रश्न उठता है मन में आखिर मैं कौन हूं?
जिंदगी खेल बन गईं।
हंसना तो जानता है मन
पर सूरत में नाराजगी की परत छा जाती है।
मन को सहज कर,
संजोग कर रखना चाहती हूं।
समझ में नहीं आता फिर से यही प्रश्न सामने आता है।
मैं कौन हूं ?
मेरा अस्तित्व क्या है?
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