काव्य धारा

पनाह मांगने बुढ़ापा है निकला…
पनाह मांगने बुढ़ापा है निकला
गुजर गया जीवन रिश्तो को संजोने में
मुड़ के देखा आज
अपनी ही बनाई पगडंडी में
तन्हा खड़े थे हम साजिशों के मेले में...
पनाह मांगने बुढ़ापा है निकला
कदर न जानी अपनी,समय बीतता गया
ख्वाहिशों के अवसरों पर
खुद को दर्द भराता गया
जीवन के सपनों पर...
पनहा मांगने बुढ़ापा है निकला
आया था अकेला
चल रहा हूं अकेला
जीवन के पद पर
सबको कुछ ना कुछ देता चला...
पनहा मांगने बुढ़ापा है चला
जीवन को सजाया था खुशियों से
आस थी बिताएंगे शान से
नतमस्तक हो गए नियति से
फुआर लगाए हम किसिसे...
पनहा मांगने बुढ़ापा है निकला
अब ना बचा जीवन शेष
फिर भी कुछ करने की आस है विशेष
बाकी बचा वह भी कर देंगे निवेश
बचे रहेंगे संस्कारों के अवशेष
पनाह मांगने बुढ़ापा है निकला...
ओमकार सरडीवाल
(अध्यापक)
जन्म:-1979
हैदराबाद।
8341738804