काव्य धारा

मैं
मैं द्रोणाचार्य नहीं हूँ,
जो कभी तो शिष्य-मोह में कटवा लूँ
किसी एकलव्य का अँगूठा
और कभी पुत्र-मोह में शस्त्र त्याग दूँ ,
कटवा लूँ अपना ही सिर,
पर न छोड़ पाऊँ अनीति का साथ
नीति के बहाने से,
जो कर देता है मजबूर
किसी सत्यवादी को भी
अर्धसत्य का सहारा लेने को।
और न ही मैं कर्ण हूँ
कि थोड़े से मान के लिए
प्रतिज्ञाबद्ध होकर
अन्याय का साथ दूँ,
उसके लिए मर मिटूँ, ...नहीं!
मैं तो कहीं न कहीं खुद को
जुड़ा हुआ पाता हूँ
एकलव्य के कटे हुए अंगूठे से
क्योंकि मैं निराश्रय का आश्रय हूँ,
गम के होठों पर
खुशियों की मुस्कान की चाहत हूँ
और
मरणासन्न का जीवन बचा पाने का
हर सम्भव प्रयत्न हूँ;
जी हाँ मैं मुकम्मल रूप में कुछ नहीं,
बस मुकम्मल की एक कोशिश हूँ !
हरिओम कुमार
अतिथि प्राध्यापक,
ललित नारायण जनता महाविद्यालय,
झंझारपुर, मधुबनी(बिहार)
+91 80848 08349
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