काव्य धारा

काव्य : शैलाधिराज
शीर्षक : गिरीश
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्
साक्षात, तत्वज्ञ, गरिमा महान
पुंसकता के समुच्चित प्रकाश
मेरी मातृका के तुषार शेखर
मेरे हिन्द के अलौकिक उत्तमांग
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।
युग-युगान्तर से दुर्जेय निरोध उन्मुक्त
युग-युगान्तर उद्धताभ्युदित सदा श्रेष्ठ
अनन्त गगन में खींच रहा
जुगों से किस विभूति का विस्तार
कैसी अक्षुण्य यह चिर-प्रणिधान
हे साधुवर! आपका कैसा यह अदित प्रहाण
तू महाविल में शोध रहा
किस गूढ़ प्रश्न का निदान
द्विविधा का कैसा प्रचंड पाश
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।
ओ शान्त योग साधना में लीन व्रती
क्षण भर को भी तो कर खोल नयन
हे अग्निशिखाओं से भी दग्ध, आकुल
छटपटा रहा है चरण पर विश्वधाम
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।
तेरे आँचल से शीतल भयी देवभूमि महान
सिंधु गंगा ब्रम्हपुत्र ये तीनों नाम प्रमत्त
जिस महालय की ओर बही
तेरी पिघली हुई अनुकंपा उदात्त
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।
जिसके गोपुर पर खड़ा क्रांत
तूने की परिधिकांत आह्वान
मर्यादा-खंडित करना पीछे
इसके पहले कर मेरा शीश कटान।
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।
इस तीर्थ-स्थल पर हैं अभी भी तपस्वी
आज आन पड़ी विपदा भीषड़
विकल तेरे संतान तड़प रहे
काट रहे चारों तरफ से विचित्र उरंगड़।
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।
कितने रत्न लुट गये
लुप्त कितने ऐश्वर्य हुए तमाम
तू योग में अनुरक्त ही रहा
इधर निर्जन हुआ मंजुल विश्वधाम।
मेरे शैलेन्द्र ओ मेरे अति विराट्।
✍🏿 सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”
सिंगरौली (मध्यप्रदेश)
9471358203
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