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Sunday, June 5

धरा का श्रृंगार - विजयलक्ष्मी (काव्य धारा)

काव्य धारा


विधा:पर्यावरण संरक्षण
कविता: धरा का श्रृंगार

आकाश हमारा पिता है
धरती हमारी माता है
आकाश से वर्षा,धूप इंसान पाता है
धरती मां से अन्न जल पाता है
दोनो से इंसान जीवन पाता है
वृक्ष मां का श्रृंगार कहलाते हैं
जो सब के जीवन दाता है
फिर क्यों निज स्वार्थ में लिप्त
मां के सीने पर कुल्हाड़ी चलाता है
आकाश से बम बरसा कर
पर्यावरण को दूषित कर
जीत की खुशी में मन को भ्रमाता है
आक्सीजन को खत्म कर
ओजोन परत में छेद बनाता है
इतना सब करने के बाद
हार में जीत का जश्न मनाता है
दावानल की अग्न में
मां का सीना जलाता है
फिर ' विजयलक्ष्मी' सोचती है
पर्यावरण दिवस मना
क्यों इंसान ढोंग रचाता है
वाही वाही के लिए इंसान
पौधे को हाथ लगा फोटो खिचवाता है
हर साल कितने पौधे लगाए जाते हैं
फिर भी धरती मां का श्रृंगार 
अधूरा नजर आता है
इंसान कैसा पर्यावरण दिवस मनाता है
इस सवाल का जवाब ढूंढने में
अचानक हाथ लिखने से रुक जाता है,
जवाब इंसानियत में गुम हो जाता है


स्वरचित विजयलक्ष्मी शिक्षिका 
मुख्य शिक्षिका छारा-2
बहादुरगढ़ झज्जर हरियाणा
लेखनी: सकारात्मक सोच
मोबाइल नं-9050209977
 
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