(Geeta Prakashan Bookswala's Anthology "ऑपरेशन सिंदूर की शौर्यगाथा")
मैं वही पथिक हूं।
जो अपने पथ से हो विचलित।
अपनी मंजिल छोड़ चले हैं।
जब शुरू किया हमने चलना ।
सब राहें तो अनजानी थी।
थे पथ सारे शूल भरे।
ना पग की कहीं निशानी थी।
राहों में काटें ही काटें।
सब फूलों की कुर्बानी थी।
थी राहें सारी धूल भरी।
पर,पथ पर आगे निकल चले हैं।
हां, मैं वही पथिक हूं।
जो अपने पथ से हो विचलित।
अपनी मंजिल छोड़ चले हैं।।
कभी भूख लगी, कभी धूप लगी।
कभी प्यासो ने झुलसाया था।
हां, कभी कभी मेरे अपनो ने
मेरे दिल को बहुत दुखाया था।
पर करु शिकायत किससे मैं
जब अपने पर थी आन पड़ी।
सब करना था , बस अपने से।
अपनो का नहीं सहारा था।
थी राहें सारी धूल भरी।
पर,पथ पर आगे निकल चले हैं।
हां, मैं वही पथिक हूं।
जो अपने पथ से हो विचलित।
अपनी मंजिल छोड़ चले है।।
कभी मिले सहज कुछ सहगामी।
पर उनसे भी तकरार हुई।
राहों में आगे जब निकले।
उनसे, न खुशी मेरी स्वीकार हुई।
ताने पर ताने दे मारे ।
तानों की हमने मार सही।
थी राहें सारी धूल भरी।
पर,पथ पर आगे निकल चले हैं।
हां, मैं वही पथिक हूं।
जो अपने पथ से हो विचलित।
अपनी मंजिल छोड़ चले हैं।।
मंजिल का नहीं ठिकाना है।
बस चलते ही चले जाना है।
इन राहों में जो मिल जाए।
मंजिल, बस उसको ही अपनाना है।
जो हुए पराए अपने भी।
उनको भी गले लगाना है।
ना ऊंच नीच का भेद भाव।
बस ये सबको समझना है।
है यही कार्य पथिक का 'जय'
है यही कहानी सूझ भरी।
बस यही कार्य समझने को,
पथ पर आगे निकल चले हैं।
हां, मैं वही पथिक हूं।
जो अपने पथ से हो विचलित।
अपनी मंजिल छोड़ चले है।।
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© जयराम भारद्वाज
ग्राम - लकुरा, पोस्ट - मधुबन
जिला - मऊ, उत्तर प्रदेश
संपर्क सं. 9889835198
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