काव्य धारा

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अदावत
करके अदावत दोस्ती का हाथ बढ़ाने लगे
ये देखो पराया कह कर अपना बनाने लगे
बड़ी मगरुर होती है दुश्मनी की मिशाल भी
न जाने क्यू वो इस मिशाल को बुझाने लगे
समझते नहीं हैं वो अदावत के सिल सिले भी
कभी दुश्मन तो कभी दोस्त बनाने लगे
वक्त कटता ही नहीं था नीचा दिखाये बगैर
और आज वो बा-इज़्ज़त मुझे गले लगाने लगे
मेरी सफ़लता-ए-शोहरत पर खुदा का रहम है
वो तो बे वजह ही नाम अपना लगाने लगे
दे दे कर दर्द मुझे कठोर बना दिया
आज उसी दर्द से खुद ही कराहने लगे
करके अदावत दोस्ती का हाथ बढ़ाने लगे
ये देखो पराया कह कर अपना बनाने लगे
सागर देहलवी
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