(गीता प्रकाशन द्वारा प्रकाशित साझा संकलन से)
तकदीर की रंगीन चादर ओढ़ ली मैने
कुछ हरी, पीली, नीली और कुछ सफेद ।
कुछ का रंग गहरा नज़र आया, कुछ का रंग फीका ।
रिश्तों को टटोल कर देखा, रंग फीका ही नज़र आया ।
नींद में सपनों को देखा रंग
चटकीला गहरा नज़र आया ।
उड़ता परिंदा पर न मार सका, पंखों को समेटते न दूर तक उड़ सका ।
हर बार आकर धरातल पर गिरता, कोशिश करता उठता ,पर उठकर भी न उठ पाता।
पुंज दल सा मन उत्साहित,
रास्ता रोके रास्ते के मनमाहित ।
पगडंडी रास्ते छोटे पोखर, खुशी चली पांव धोकर ।
न आऊ तुम्हारे द्वार कभी, ऐसी है पीड़ा की कड़ी ।
भोर होते ही उल्लास होता है कि आज कल से बेहतर होगा,
पर नहीं उम्र के इस पड़ाव में भी वही दर्द, दर्द ऐसा कि साथ न छोड़े ।
कहते है समय परिवर्तित है पर वो समय अदृश्य है।
न जाने हंसी की वो आवाज़ कहा गई ।
मन बार-बार खोजने को दौड़ता है, पर खाली हाथ वापस आता है।
उजियारे ने दस्तक दी, संग चलो मेरे साथ ।
काले समय ने आकर कहा, न जा उसके साथ ।
खुशियां तेरी बंद मुट्ठी में पड़ी, काहे फड़फड़ाए बैठी खड़ी ।
दिन बीते साल बीते, आंखों के आंसू पीते ।
सब्र का बांध टूट चुका, आंसुओं का थाल भर चुका ।
जिंदगी अब तो रहम कर, सीने में धड़कना बंद कर,
सीने में धड़कना बंद कर।
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© सुनीता चिरंजीव लहरे
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