काव्य धारा

हे श्रद्धा! उरवास करो तुम मेरे,
निर्मलता का हो अवगाहन, रहें पुण्य के धवल सवेरे।।
निश्छल भक्ति का अनुदान हो तुम,
पत्थर में भासित राम हो तुम।
हर शंका का अवसान हो तुम,
भव मुक्ति का सोपान हो तुम।।
ज्योतिशिखा के अमित तेज से हुए दूर अंधेरे,
हे श्रद्धा! उरवास करो तुम मेरे।।
ईश का हास-विलास हो तुम,
भक्ति का विस्तृत आकाश हो तुम।।
आस हो तुम विश्वास हो तुम,
मनदीप का दिव्य प्रकाश हो तुम।।
सतसंकल्पों के माणिक मोती जड़ दो जीवन में मेरे,
हे श्रद्धा! उरवास करो तुम मेरे।।
निर्मलता का आह्वान हो तुम,
शाश्वतता का अभियान हो तुम।
जीवन पथ की मुस्कान हो तुम,
पूर्णत्व का संधान हो तुम।।
शरदकाल की बीते संध्या, छा जायें प्रखर उजेरे,
हे श्रद्धा! उरवास करो तुम मेरे।।
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