Tuesday, July 1

इक्कीसवीं सदी के महिला कहानीकारों की कहानियों में स्त्री चेतना - नाज़िमा (Geeta Prakashan Bookswala's Anthology "शब्दानंद")



इक्कीसवीं सदी के महिला कहानीकारों की कहानियों में स्त्री चेतना
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    इक्कीसवीं सदी भारतीय साहित्य में, विशेषकर हिंदी कहानी में, स्त्री चेतना के मुखर प्रकटीकरण का युग रहा है। इस सदी की महिला कहानीकारों ने न केवल अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, बल्कि उन्होंने पितृसत्तात्मक समाज द्वारा गढ़ी गई स्त्री की पारंपरिक छवियों को भी चुनौती दी है। उनकी कहानियाँ स्त्री जीवन के विविध आयामों को, उसकी जटिलताओं और संघर्षों को, तथा उसकी आंतरिक शक्ति और आकांक्षाओं को गहराई से उद्घाटित करती हैं।


स्त्री चेतना का विकास: पारंपरिक से आधुनिक तक

    बीसवीं सदी की शुरुआत में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और बाद में मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा जैसी लेखिकाओं ने स्त्री के शोषण, उसकी विवशता और उसके घरेलू दायरे को अपनी कहानियों का विषय बनाया। इक्कीसवीं सदी की महिला कहानीकारों ने इस विरासत को आगे बढ़ाते हुए स्त्री चेतना को एक नई दिशा दी है। अब स्त्री केवल शोषित या पीड़ित नहीं, बल्कि वह अपने अधिकारों के प्रति सजग, अपनी पहचान को लेकर मुखर और अपने निर्णयों की स्वामिनी के रूप में चित्रित हो रही है।


प्रमुख विषय-वस्तु और प्रवृत्तियाँ:

    इक्कीसवीं सदी की महिला कहानीकारों की कहानियों में स्त्री चेतना निम्नलिखित प्रमुख प्रवृत्तियों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है:


व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता

    ये कहानियाँ स्त्री की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने की चाह को दर्शाती हैं। विवाह, परिवार और सामाजिक बंधनों से परे वे अपने अस्तित्व को परिभाषित करने का प्रयास करती हैं। वे केवल किसी की बेटी, पत्नी या माँ के रूप में नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान चाहती हैं।


शरीर और यौनिकता पर नियंत्रण 

    एक महत्वपूर्ण बदलाव यह आया है कि इन कहानियों में स्त्री अपने शरीर और अपनी यौनिकता पर अपने अधिकार की बात करती है। यौन उत्पीड़न, सहमति और यौन इच्छाओं को लेकर पहले के मुकाबले अधिक खुली और बेबाक चर्चा मिलती है। यह स्त्री को केवल प्रजनन या पुरुष की संतुष्टि के साधन के रूप में देखने की पारंपरिक सोच को चुनौती देता है।


पारिवारिक संबंधों का पुनर्मूल्यांकन

    इन कहानियों में पारिवारिक संबंधों, विशेषकर पति-पत्नी, सास-बहू और माँ-बेटी के संबंधों का नए सिरे से मूल्यांकन किया जाता है। पितृसत्तात्मक ढांचे में स्त्री पर लादे गए भूमिकाओं और अपेक्षाओं पर प्रश्न उठाए जाते हैं। कई कहानियाँ आधुनिक परिवारों में स्त्री के सामने आने वाली चुनौतियों और उसके द्वारा अपनी जगह बनाने के प्रयासों को दर्शाती हैं।


कार्यक्षेत्र और आर्थिक आत्मनिर्भरता

    इक्कीसवीं सदी की स्त्री घर की चारदीवारी से निकलकर कार्यक्षेत्र में अपनी जगह बना रही है। ये कहानियाँ कामकाजी महिलाओं के संघर्षों, उनकी सफलताओं और कार्य-जीवन संतुलन को बनाए रखने की चुनौतियों को उजागर करती हैं। आर्थिक आत्मनिर्भरता स्त्री चेतना का एक महत्वपूर्ण पहलू बनकर उभरा है, जो उसे निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता है।


मानसिक स्वास्थ्य और भावनात्मक जटिलताएँ

    स्त्री के मानसिक स्वास्थ्य और उसकी भावनात्मक जटिलताओं को भी इन कहानियों में गंभीरता से लिया गया है। अवसाद, अकेलेपन, निराशा और आत्मविश्वास की कमी जैसी समस्याओं को खुलकर दर्शाया गया है। यह स्त्री को केवल बाहरी तौर पर सशक्त दिखाने के बजाय उसके आंतरिक उथल-पुथल को भी समझने का प्रयास करता है।


शहर और स्त्री

    शहरीकरण ने स्त्री जीवन को किस प्रकार प्रभावित किया है, यह भी इन कहानियों का एक महत्वपूर्ण विषय है। महानगरों में स्त्री को मिली स्वतंत्रता, गुमनामी और नए अवसर, साथ ही उसके सामने आने वाली असुरक्षा और अकेलेपन को भी दर्शाया गया है।


प्रमुख कहानीकार और उनकी कहानियाँ

    इस सदी की कई महिला कहानीकारों ने स्त्री चेतना को अपनी रचनाओं में जीवंत किया है। ममता कालिया, अनामिका, अलका सरावगी, मृदुला गर्ग (हालांकि इनकी लेखन यात्रा इक्कीसवीं सदी से पहले भी रही है, इनकी कुछ रचनाएँ इस काल में भी प्रासंगिक हैं), गीतांजलि श्री, सारा राय, नासिरा शर्मा, आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिनकी कहानियों में स्त्री चेतना के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। उनकी कहानियाँ स्त्री के आंतरिक द्वंद्व, उसकी आकांक्षाओं, विद्रोह और स्वयं को परिभाषित करने के उसके अथक प्रयासों को दर्शाती हैं।


निष्कर्ष

    इक्कीसवीं सदी के महिला कहानीकारों ने हिंदी कहानी को एक नया आयाम दिया है। उनकी कहानियाँ न केवल स्त्री जीवन की जटिलताओं को समझती हैं, बल्कि वे स्त्री चेतना को एक सशक्त और गतिशील शक्ति के रूप में प्रस्तुत करती हैं। ये कहानियाँ समाज में स्त्री की भूमिका, उसके अधिकारों और उसकी स्वायत्तता पर महत्वपूर्ण बहस छेड़ती हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इक्कीसवीं सदी की स्त्री अब मौन नहीं, बल्कि अपनी आवाज़ को पूरी मुखरता से व्यक्त कर रही है। यह साहित्य के माध्यम से समाज में एक सकारात्मक परिवर्तन लाने का संकेत है।       


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© नाज़िमा

करीमनगर

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