काव्य धारा

जिस दिन से मैं करने लगा नशा ,
मेरी दशा अत्यंत दुर्दशा हो गई ।
संगत ये होने लगी नशाखोरों से ,
जिन्दगी पूरी यह नशा हो गई ।।
पीना सीखा दिए ऊन जालिमों ने ,
मेरे तन वस्त्र बदबू से तर हो गए ।
सब भाग गए होश में ही रहकर ,
कीचड़ नाले मेरे बिस्तर हो गए।।
बेहोश ही पड़े थे कीचड़ में जब ,
कुत्ते भी मेरे मुँह को चाट रहे थे ।
बुला रहे थे मित्रों को खुशी होकर ,
मानो खुशियाँ अपनी बाँट रहे थे।।
होश आया तब तक मैंने ये देखा ,
मेरे जगते कुत्ते भी भाग खड़े हुए।
बह रहे थे सबके नाले का पानी ,
कीचड़ रूपी गद्दे पे थे पड़े हुए ।।
सोच रहा था मैं घर को ही जाना ,
हाथ पैर भी मेरे थे ढीले ही पड़े ।
आए दो युवा मुझे सहारे लगाने ,
तब पहुँचा घर हो सहारे खड़े ।।
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा ,
छपरा सारण
बिहार ।
95045 03560
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