Sunday, June 26

नशा - अरुण दिव्यांश (काव्य धारा)

काव्य धारा


नशा

जिस दिन से मैं करने लगा नशा ,

मेरी दशा अत्यंत दुर्दशा हो गई । 

संगत ये होने लगी नशाखोरों से ,

जिन्दगी पूरी यह नशा हो गई ।।

पीना सीखा दिए ऊन जालिमों ने ,

मेरे तन वस्त्र बदबू से तर हो गए ।

सब भाग गए होश में ही रहकर ,

कीचड़ नाले मेरे बिस्तर हो गए।। 

बेहोश ही पड़े थे कीचड़ में जब ,

कुत्ते भी मेरे मुँह को चाट रहे थे ।

बुला रहे थे मित्रों को खुशी होकर ,

मानो खुशियाँ अपनी बाँट रहे थे।।

होश आया तब तक मैंने ये देखा ,

मेरे जगते कुत्ते भी भाग खड़े हुए।

बह रहे थे सबके नाले का पानी ,

कीचड़ रूपी गद्दे पे थे पड़े हुए ।।

सोच रहा था मैं घर को ही जाना ,

हाथ पैर भी मेरे थे ढीले ही पड़े ।

आए दो युवा मुझे सहारे लगाने ,

तब पहुँचा घर हो सहारे खड़े ।।



अरुण दिव्यांश

डुमरी अड्डा ,

छपरा सारण 

बिहार ।

95045 03560

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