काव्य धारा
जिन्दगी औरत की
माँ - बाप के आँगन की , मीठी किलकारी सी थी वो ।
ममता के सांझ में पलकर, मद ,मगन मस्त ड़ोली थी वो ।
यौवन के आँगन में माँ के आँचल में , पापा के बाहों के झूले में झूली थी वो ।
घर की देहरी पर सुन्दर रंगोली सी , मुस्कान बनकर बिखेरी थी वो ।
सात फेरे और मंगल सूत्र से ,नए डोर में बंधी थी वो ।
न संगी न साथी अपने , सिर्फ सिन्दूर से आज सजी थी वो ।
थाम दामन पति का , कठिन पगदंडीयों पर चली थी वो ।
धूप -छाँव के मेले में देखो कैसे, हर रंग के साथ खेली थी वो ।
अपने साजन की बाहों में , कदम -कदम पर महकी थी वो ।
तरस्ती थी पेट भर रोटी को , हर दिन माटी को रौंदती थी वो ।
काल चक्र के हाथों आज, उसकी किस्मत भी जैसे रुठी थी ।
उसकी बदनसीबी देख कर , रूह भी तडप तडप कर रोई थी ।
उसके जीवन की दास्ताँ छिपाता , घना अन्धकार भी पिघला था ।
उसका मासूम ,निश्चल चेहरा आज ,गहन निद्रा का दास बना था ।
नसीब न थी अर्थी उसे,न ही कफन का सामान था ।
उसके पति की आँखों के भी आंसू , आज मरता रेगिस्तान था ।
चिता की अग्नि को देखो आज ,न जाने कितनी प्यासी थी ।
मुस्कुराकर गोद में भरा उसे, जैसे उसका आस्वादन करने वाली थी ।
औरत की जिन्दगी का भी सफ़र ,देखो तो कितना अनूठा था ।
उसके कजरारी आँगन का ,हर ख्वाब आज भी अधूरा था ।
खुशबू की क्यारियों में लिपटी , नाज़ुक पंखुडियों को बिखेरती थी वो ।
आज भी एक नवजात को जन्म देकर भी , न जाने क्यूँ अधूरी सी थी वो ।
C. Rajani
GGHS Musheerabad,
Gr - 2 Hindi Pandith.
Musheerabad, Hyd.
9652054033
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